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क्या वजह है कि दो दिग्गजों को हराने वाले मनोज सिंह डब्लू को लगातार मिल रही है दो बार से हार

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व्यूरो रिपोर्ट रविशंकर मिश्रा

उत्तर प्रदेश के चंदौली जनपद की सैयदराजा विधानसभा सीट पूर्वांचल की सबसे चर्चित और चुनौतीपूर्ण सीटों में से एक मानी जाती है। यहां का चुनावी गणित सिर्फ एक विधायक चुनने तक सीमित नहीं रहता, बल्कि पूरे पूर्वांचल की सियासत पर इसका प्रभाव देखा जाता है। यही वजह है कि हर चुनाव में इस सीट पर प्रदेश के बड़े नेताओं की विशेष नजर रहती है।

वर्ष 2012 में इस सीट पर जबरदस्त राजनीतिक मुकाबला देखने को मिला था। उस समय पूर्वांचल के दो बड़े दिग्गज बृजेश सिंह और हिरन सिंह चुनाव मैदान में थे, लेकिन इन दोनों को मात देकर जिस शख्स ने जीत हासिल की, वो थे मनोज सिंह डब्लू। उन्होंने यह चुनाव किसी राजनीतिक पार्टी के टिकट पर नहीं, बल्कि निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में लड़ा था और भारी जनसमर्थन के साथ विधानसभा पहुंचे। यह जीत उनके जनाधार, सादगीपूर्ण छवि और गरीबों के मुद्दों पर मुखर रहने की वजह से संभव हो सकी।

अखिलेश यादव, मनोज सिंह डब्लू

इसके बाद 2017 में मनोज सिंह डब्लू ने समाजवादी पार्टी का दामन थाम लिया और उसी पार्टी के टिकट पर चुनाव मैदान में उतरे,

भाजपा विधायक सुशील सिंह

लेकिन इस बार भाजपा के प्रत्याशी सुशील सिंह से हार का सामना करना पड़ा। 2022 में एक बार फिर सपा ने उन पर भरोसा जताया, लेकिन नतीजा वही रहा – उन्हें फिर से सुशील सिंह ने हराया। अब सवाल यह उठता है कि जब एक समय उन्होंने इतने ताकतवर नेताओं को पराजित किया, तो अब लगातार दो बार क्यों हार रहे हैं?

संभावित कारण:

  1. पार्टी की स्वीकार्यता में कमी:
    पूर्वांचल के कई हिस्सों में समाजवादी पार्टी की पकड़ पहले जितनी मजबूत नहीं रही। खासकर चंदौली जैसे जिलों में जहां जातीय समीकरण और विकास के मुद्दे काफी प्रभाव डालते हैं, वहां भाजपा ने अपने संगठन को जमीनी स्तर पर मजबूत किया है। भाजपा की ‘डबल इंजन सरकार’ की रणनीति और केंद्र व राज्य दोनों स्तरों पर लाभार्थी योजनाओं का असर वोटिंग पैटर्न पर पड़ा है।
  2. स्थानीय विकास और वादों पर सवाल:
    लोगों का कहना है कि उन्होंने जिस परिवर्तन और विकास का वादा किया था, उसे ज़मीन पर पूरी तरह उतार नहीं पाए। जनता को लगता है कि वे विरोध की राजनीति में अधिक सक्रिय रहते हैं, लेकिन समाधान की दिशा में उनका काम कम दिखता है।      
  3. विरोधी प्रत्याशी की मज़बूत पकड़:
    भाजपा विधायक सुशील सिंह की इलाके में पकड़ मजबूत मानी जाती है। पार्टी का संगठनात्मक ढांचा, संसाधनों की उपलब्धता और जातीय समीकरण उनके पक्ष में काम करते हैं। इसके अलावा, उन्होंने अपनी छवि एक सुलझे हुए जनप्रतिनिधि के रूप में बनाई है, जो समय-समय पर जनता से संवाद बनाए रखते हैं।
  4. बदलती राजनीतिक रणनीतियाँ:
    मनोज सिंह डब्लू को एक समय जनता का सच्चा प्रतिनिधि माना गया, लेकिन समय के साथ राजनीति के तौर-तरीके बदल गए। अब केवल संघर्ष की राजनीति से बात नहीं बनती, बल्कि मैनेजमेंट, मीडिया रणनीति, सोशल मीडिया की उपस्थिति और चुनावी माइक्रो-मैनेजमेंट भी बहुत मायने रखते हैं। इसमें भाजपा ने बढ़त बनाई है।
  5. समाजवादी पार्टी की रणनीतिक चूक:
    सपा ने कई बार संगठनात्मक स्तर पर कमजोरियाँ दिखाई हैं, खासकर बूथ स्तर पर। स्थानीय कार्यकर्ता सक्रिय नहीं रह पाते या सही ढंग से मतदाताओं को जोड़ नहीं पाते। मनोज सिंह डब्लू भले ही मेहनती नेता हों, लेकिन अगर पार्टी का स्थानीय नेटवर्क कमजोर हो, तो व्यक्तिगत लोकप्रियता भी ज्यादा मदद नहीं कर पाती।

निष्कर्ष:

मनोज सिंह डब्लू की राजनीति में अब भी एक सशक्त छवि है, लेकिन लगातार दो चुनावों में हार यह दर्शाता है कि या तो जनता में पार्टी को लेकर विश्वास नहीं बचा, या फिर उनके कार्यों की प्रभावशीलता में कमी रही है। एक नेता के रूप में वे जमीनी मुद्दों को उठाने वाले और गरीबों के हक की लड़ाई लड़ने वाले नेता माने जाते हैं, लेकिन राजनीति में जीत के लिए केवल संघर्षशील होना काफी नहीं होता – एक स्पष्ट विकास दृष्टि, ज़मीन पर असरदार काम और संगठनात्मक रणनीति भी उतनी ही जरूरी है।

यदि मनोज सिंह डब्लू को भविष्य में इस सीट पर वापसी करनी है, तो उन्हें जनता के विश्वास को फिर से मजबूत करना होगा, बीते कार्यकाल के अनुभव से सीख लेकर जनसंवाद और कार्य निष्पादन दोनों में पारदर्शिता लानी होगी। साथ ही, समाजवादी पार्टी को भी पूर्वांचल में अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना होगा, अन्यथा यह सीट भाजपा के हाथों में ही बनी रह सकती है।

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